प्रगतिशील लेखक संघ पंजाब का प्रकाशन, कविता संग्रह "चलो जिधर उजियारा चले"- हरनाम सिंह
*स्वावलंबन और आत्मसम्मान की परंपरा भी बाबा फरीद से मिलती है*
पंजाब की संस्कृति, वहां का जन-जीवन, वहां की चिंताएं, आंदोलन, अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध सभी को रेखांकित किया गया है कविता संग्रह "चलो जिधर उजियारा चले" में। प्रगतिशील लेखक संघ पंजाब द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन सुरजीत जज्ज, तरसेम और कुलदीप सिंह दीप ने किया है। पंजाब के लेखन में गुरु नानक देव का कितना प्रभाव है, वह उनकी वाणी से ली गई एक पंक्ति में मिलता है जब नानक कहते हैं *घड़िए सबदु सची टकसाल* वे शब्द को कितना महत्व दे रहे हैं। यह ध्येय वाक्य पंजाब के साहित्यकारों के लिए ही नहीं, साहित्य जगत के सभी लेखकों के लिए एक पैमाना है। शब्द ऐसा हो जो प्रमाणिक हो, सच्चा हो।
स्वावलंबन और आत्मसम्मान की परंपरा भी बाबा फरीद से मिलती है जब वे कहते हैं *" बार पराये बैसणा, सांई मुझे ना देहि"*। मुझे दूसरों पर निर्भर न होने की स्थिति मिले। वहीं बाबा बुल्ले शाह कहते हैं *"ओह काफ़िर काफ़िर आखदे, तू आहो आहो आख"* यह है प्रेम की स्वीकारोक्ति।
पुस्तक के प्रारंभ में प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सिरसा कहते हैं पंजाबी भाषा में जन-पक्षीय कविता की एक बड़ी समृद्ध परंपरा है. सिख गुरुओं, सूफी कवियों ने विलासी राज्य सत्ता, पाखंडी पुजारियों, अहंकारी सामंत शाही का डटकर विरोध किया है। उन्होंने इश्क को *अल्लाह की जात* कहा है। समकालीन पंजाबी कविता सामाजिक आंदोलन की हमसफर रही है। संपादक प्रोफेसर सुरजीत जज्ज के अनुसार पंजाबी कविता "मोहब्बत की बगावत और बगावत की मोहब्बत" के रिश्ते को खूब पहचानती है। उनकी ज़ुस्तज़ु है *"अंधेरे को बे आराम करते चलें, चलो चिरागों का काम करते चलें।"* वही तरसेम कुंवर नारायण को उद्धरत करते हुए कहते हैं *"कोई दुख, मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा जो लड़ा नहीं"*
संग्रह की पहली कविता पंजाबी के युवा और लोकप्रिय कवि पाश की है जो अपने देश को अपने सम्मान से जोड़ते हैं। उनके लिए बाकी सब शब्द अर्थ हीन हो जाते हैं। डॉक्टर जगतार अपनी कविता "क्या उत्तर दूं" मैं शाश्वत सा सवाल उठाते हैं *"हम कणक बीजते हैं, पालते हैं, काटते हैं, मंडी लेकर जाते हैं, पर कणक को हमारे घरों की राह नहीं आती"*
सुरजीत पातर अपनी कविता "पंछी तो उड़ गए हैं" में संकल्प व्यक्त करते हैं *"हमने इस धरती को बनाना है, बसण जोग,रसण जोग"* "रोज आफ सेराओ" कविता में डॉक्टर मोहनजोत एक सुनी हुई कहानी जिसमें एक बीमार वृद्ध को स्तनपान कराती युवती में वे मरियम की प्रति छाया देखते हैं। सुखदेव सिरसा कविता "भारत" में हथेली पर खोदे हुए हिंदुस्तान के नक्शे को जिंदगी का सबसे बड़ा खौफ मानते हैं। वे पूछते हैं *"मरी हुई ज़मीर के कुफ्र को लोगों के लिए सलाखें हैं तो हैं, लफ़्ज़ों के नसीब में सूली क्यों ?"*
सुरजीत जज्ज अपनी कविता "धूल से सूरज नहीं मिटते" में सदियों से कुमार्ग पर चलते पांव की धूल से कहते हैं *"तुम अंधकार के किसी भी रूप में आओ तुम्हारे रूबरू लौ हमारी होगी"* भाषा को रोटी से जोड़ते हुए लखविंदर जौहल कहते हैं *"दो लफ़्ज़ों से रोटी बनती, दो लफ़्ज़ों से भाषा, दोनों छीनी जाए जब भी, होती घोर निराशा"*
"फैसले की घड़ी" कविता में गुरतेज कोहारवाला पूछते हैं *"जब तंग कमीज की तरह माप न आए तो इसे उल्टा-पुल्टा कर देखना बगावत कैसे हुई हजूर ?"* "तल्ख मौसमों का हिसाब" कविता में सुखविंदर कंबोज कहते हैं *"राजनीति कमाल है, यह मनुष्य को रिश्ता नहीं एक वोट मानती है"* आगे... *"तल्ख मौसमों का हिसाब पूछना, और कुछ नहीं, वास्तव में मौत की फाइल पे, अपने हिस्से के बाद की नोटिंग करना है।"*
" ब्याज" कविता में सुखपाल पलायनवादियों को ललकारते हैं वे कहते हैं *".लड़ने वाला भी मरने तक नहीं थकता, मगर भागने वाला जीते जी थक सकता है..."* आगे *"यदि युद्ध ने तुझे चुन लिया है, तो तेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा, अब न लड़ने का, बेहतर है कि तू अभी लड़ले"* "खोलते खून की गुजारिश" कविता में सरबजीत सोही हिम्मत बंधाते हैं *"जालिम की गर्दन तक... अगर तलवार न भी पहुंचे, इसे म्यान ने निकाल कर चूम लेना..."* आगे वे समझाते हैं *"धरती पर बोझ न बनना... मेरे दोस्तों चुप के तलबगार न बनना, खामोशी बहुत खतरनाक होती है... जूझते लोगों की गाथा बनो, पर बहरे दौर का किस्सा मत बनना, मेरे दोस्तों.... बस मरने तक- खुद को मरने मत देना।"*
" नारीवादी चिंतन के साथ संवाद" कविता में लाभ सिंह खीवा की नारी पेतृक सत्ता को ललकारती है उसके अनुसार *"फेरों के समय वर का पकड़ा जो पल्लू, खरीदे गए पशु के लिए, सांकल ही होती है"* आगे वह पूछती है *"गृहस्थी की गाड़ी के, दो पहिए होने के, प्रतीक भी गढ़ते हो, पर एक पहिया ही, आगे क्यों करते हो ?"*
रणवीर राणा की गजल सहज की समझ में आती है, वे जनता की रहनुमाई का दावा करने वालों की सच्चाई को सामने लाते हैं।
*"सानू हलाल कर दे, साडे ही रहनुमा ने, सालां दे साल कर दे,साडे ही रहनुमा ने। पिड़ा दा चौगा पाऊंदे, मरहम वी नाल रक्खण, वेखो कमाल कर दे, साडे ही रहनुमा ने"*
हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में रवीश कुमार की बेखौफ अभिव्यक्ति, लोकतंत्र के प्रति भरोसा जगाती है तरसेम की कविता "यह कोई खत नहीं..." में कवि रवीश से पूछता है
*"जब औरत का चीर हरन होता है, तो सारा समाज बेपर्दा होता है, और राजा भी नंगा हो जाता है। जब राजे की उतर जाए लोई, तो देश को कौन ढके ?"*
भगत सिंह को अनेक कवियों ने अपनी तरह से याद किया है। अपनी कविता "भगत सिंह" में जसवंत सिंह जफर पूछते हैं *"मैं प्रत्येक जन्मदिन पर, बुढ़ापे की और एक साल सरकता हूं, तू हर शहीदी दिवस पर चौबीस साल का भर जवान गभरू ही रहा"* बख्तावर सिंह कहते हैं *"नारों और बुतों में से, भगत सिंह को खोजने वाले साथी, उसकी प्रतीक्षा मत कर, जो गया ही नहीं उसका इंतजार क्यों ? भगत सिंह व्यक्ति का नहीं, विचारधारा का नाम है।"*
डॉक्टर कुलदीप सिंह दीप भी दिल्ली की सीमा पर किसान आंदोलन को याद करते कहते हैं *"तब तुम 23 वर्षीय युवा थे,शासक के अहंकार को तोड़ने जेल गए थे। अब तुम 70 वर्ष के युवा, फिर से शासक का अहंकार तोड़ने सीमा पर पहुंच गए। देखो भगत सिंह... तरक्की कर गया है तुम्हारा देश।"*
नीतू अरोड़ा की कविता भी सामयिक है वे कहती हैं *"यह खिलाफ होने का समय है, हर एक शब्द के खिलाफ, जो घृणा की कोख से पैदा होता है।"* "जीवन जांच" कविता में संदीप जायसवाल अपनी परवरिश पर सवाल उठाते कहते हैं *"अपने मां-बाप को कायर कह दूं, जिन्होंने मुझे जीना सिखाया, या सहना सिखाया, न मरना सिखाया, न लड़ना सिखाया।"*
नरिन्दर पाल कौर औपचारिकता और विसंगति पर दुखी होकर सवाल उठाती है।
*समय के हाकिम, बुलेट प्रूफ पहन कर, अवाम का सिर, पंथ को भेंट करते, कैसे कहूं बैसाखी मुबारक*
संग्रह में ग़ज़लों का अनुवाद कठिन मानकर उनका लिप्यांतरण किया गया है। इनका अनुवाद भी संभव हो सकता था। हालांकि पंजाबी ग़ज़ल समझना इतना मुश्किल भी नहीं है, जब सुरजीत सखी कहते हैं
*"रिशतियां नू गरम रख सकदा है बस, दौलत दा सेक, किस तरां मारोगे पर, जज़्बात दी ठंडक तुसी"*
कुल मिलाकर कविता संग्रह अपने समय का दस्तावेज है, जिसे संजोए रखा जाना चाहिए।