एसईसीएल की छाया में मज़दूरों की खुलेआम हत्या – नीलकंठ बना शोषण का अड्डा!

 एसईसीएल की छाया में मज़दूरों की खुलेआम हत्या – नीलकंठ बना शोषण का अड्डा!

*नियम कानून का क़त्ल, इंसानियत की मौत,नीलकंठ कंपनी में मज़दूर बनते हैं ग़ुलाम*


अनूपपुर

एसईसीएल के अंतर्गत काम कर रही नीलकंठ कंपनी ने ठेका मजदूरों को नर्क जैसी हालत में झोंक दिया है और सब कुछ प्रशासन की नाक के नीचे कंपनी का नाम भले ही नीलकंठ हो, मगर इसकी करतूतें विषकंठ से कम नहीं। यहां मजदूरों को मानव नहीं, सिर्फ नंबर समझा जाता है, सुरक्षा, स्वास्थ्य, वेतन, पहचान ये सब शब्द नीलकंठ की डिक्शनरी में ही नहीं हैं । नीलकंठ कंपनी को देखकर लगता है जैसे यह किसी खनन कंपनी की आड़ में चल रही शोषण की संगठित फैक्ट्री है, जहाँ इंसान को सिर्फ़ उतना ही ज़िंदा रखा जाता है, जितना मुनाफ़ा लाने के लिए ज़रूरी हो बाकी सब उसकी ज़िंदगी से धीरे-धीरे काट दिया जाता है  ट्रेनिंग, सुरक्षा, मेडिकल, सम्मान, अधिकार।

*अनुबंध श्रम अधिनियम, 1970*

इस अधिनियम की धारा 29 कहती है कि हर ठेका मज़दूर का रिकॉर्ड फॉर्म “ए”  और फॉर्म “डी”  में दर्ज होना चाहिए यदि कोई श्रमिक अपने हक (जैसे, मजदूरी, मुआवजा, या बीमा) के लिए कानूनी कार्रवाई करता है, तो ये फॉर्म महत्वपूर्ण सबूत के रूप में काम करते हैं, ये फॉर्म सुनिश्चित करते हैं कि श्रमिकों को उनके अधिकार जैसे न्यूनतम मजदूरी, ओवरटाइम, और अन्य सुविधाएं, समय पर और पूरी तरह मिलें लेकिन नीलकंठ के यहाँ मज़दूरों की मौजूदगी काग़ज़ पर शून्य है, वो हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं, लेकिन रिकॉर्ड में भूत हैं और जब दस्तावेज़ों में नाम नहीं होगा, तो वो न बोनस के अधिकारी बनते हैं, न ग्रेच्युटी के, न पीएफ के, न मुआवज़े के यह सिर्फ़ नियम की अनदेखी नहीं, एक सुनियोजित लूट है, जिसमें मज़दूर की मेहनत का हिसाब किसी और की जेब में जाता है

*क्या कहता है माइन्स एक्ट*

यह कानून स्पष्ट कहता है कि खदान क्षेत्र में कार्यरत प्रत्येक श्रमिक को बेसिक ट्रेनिंग सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य है, प्रशिक्षित बिना किसी को खदान में नहीं उतारा जा सकता, यह सुरक्षा का बुनियादी नियम है, परंतु नीलकंठ कंपनी में बिना बीटीसी के ही मज़दूरों को खदानों में झोंक दिया जाता है यह न केवल गैरकानूनी है, बल्कि मज़दूरों की जान को जानबूझकर जोखिम में डालने के बराबर है। धारा 40, माइन्स एक्ट के अनुसार हर मज़दूर का स्वास्थ्य परीक्षण  होना चाहिए, लेकिन नीलकंठ में ये शब्द केवल मज़ाक बन चुके हैं सिलिकोसिस, फेफड़ों की बीमारियाँ, कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ इन मज़दूरों के जीवन में आम हो गई हैं, लेकिन कंपनी को इससे कोई मतलब नहीं। मेडिकल सुविधा, एम्बुलेंस, कैंटीन सब सिर्फ़ नियमों की किताब में हैं, ज़मीनी सच्चाई में नहीं । ठेकेदार को श्रमिकों के लिए चिकित्सा सुविधाएं सुनिश्चित करनी होती हैं नीलकंठ एसईसीएल से एचपीसी रेट पर करोड़ों की रकम हर महीने वसूलती है, लेकिन मज़दूरों के पुराने दर पर ही भुगतान किया जाता है ये सीधे तौर पर न्यूनतम वेतन अधिनियम का उल्लंघन है सरकार द्वारा तय किए गए न्यूनतम मानकों से कम वेतन देना अपराध है, लेकिन यहाँ यह अपराध प्रतिदिन और खुलेआम किया जा रहा है ।

*मजदूरी भुगतान अधिनियम*

कानून कहता है कि हर मज़दूर को वेतन की पर्ची  देना अनिवार्य है, लेकिन नीलकंठ में किसी को नहीं दिया जाता मेडिकल कार्ड भी नहीं बनाया जाता, जिससे मजदूरों पर आश्रित परिवारों को सही मेडिकल सुविधा मिल सके, सही इलाज करा सके, यह एक रणनीतिक तरीका है,  मज़दूर को हर उस दस्तावेज़ से दूर रखा जाए जो उसके अधिकारों को साबित कर सके

*प्रशासन की चुप्पी, मिलीभगत*

यह सब प्रशासन की आँखों के सामने हो रहा है। कलेक्टर , एसडीएम, श्रम अधिकारी, डीजीएमएस, खनिज निरीक्षक  ये सभी जानते हैं कि नीलकंठ में श्रम कानूनों का खुला चीरहरण हो रहा है, फिर भी कोई जांच, कोई छापा, कोई एफआईआर नहीं क्या यह चुप्पी दबाव की है या दाम की? क्या मज़दूरों की जान अब आंकड़ों में दर्ज होने लायक भी नहीं रही, कई बार लगता है कि कानून अब सिर्फ़ ग़रीबों पर चलाने के लिए बना है अगर कोई मज़दूर बीमार पड़ जाए, तो इलाज नहीं अगर वह दुर्घटना का शिकार हो जाए, तो मुआवज़ा नहीं और अगर वह मर जाए  तो बस एक संवेदना का झूठा बयान, और उसकी जगह दूसरा मज़दूर लगा दिया जाता है यह सब देखकर सवाल उठता है।

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