तथाकथित आधुनिक भारत में जातिवाद का सच्चा स्वरूप, हिंदू व हिंदुस्तान के अस्तित्व पर घोर संकट

तथाकथित आधुनिक भारत में जातिवाद का सच्चा स्वरूप, हिंदू व हिंदुस्तान के अस्तित्व पर घोर संकट 

 *जातिवाद भारतीय राजनीति का मुख्य आधार जिस पर नेता व पार्टी रोटी सेंकती है*


(एक यथार्थ समाजशास्त्रीय अध्ययन) 

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सैकड़ों वर्षों से सनातनी,जातिवाद का दंश झेलते आ रहें हैं। आजादी के बाद भी,गांधी और नेहरू की कांग्रेस ने सत्ता पर काबिज रहने और हिंदुओं में द्वेष फैलाने और उनके विनाश हेतु संविधान में जातिगत आरक्षण की कील ठोक दी है। उद्देश्य बताया गया कि आरक्षण से पिछड़े, दलितों, वंचितों को अवसर मिलेगा और वे आर्थिक रूप से विकास के मुख्य धारा में आ जायेंगे। लेकिन आज 10 बर्षो के लिए निर्धारित संवैधानिक आरक्षण, चिरंजीवी हीं नहीं हो गया बल्कि आजादी के 78 साल बाद इसका दायरा और भी बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है आरक्षण का उद्देश्य वंचितों को उपर उठाने का नहीं था। यदि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया होता तो आज भारत विश्व में सबसे विकसित राष्ट्र होता लेकिन उद्देश्य तो हिंदुओं को बांटकर *"गजवा-ए-हिंद"* करना था।सच पुछिये तो जातिवाद भारतीय राजनीति का मुख्य आधार बन चूका है जिसपर जातिवादी पार्टियां और नेता अपनी रोटी सेंक सेंक कर सत्ता का सुख भोगते हैं। अबतक का इतिहास कहता है कि जातिवादी राजनीति का लाभ सिर्फ और सिर्फ तथाकथित नेता और उसका परिवार हीं उठाता रहा है लेकिन इसका दुष्परिणाम सभी हिन्दू और हिंदुस्तान झेल रहा है।


मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद विपक्षियों के पास सत्ता तक पुनः पहुंच बनाने के टूल्स के रूप में एक मात्र,जातिवादी राजनीति हीं नजर आ रहा है तभी तो हिंदुओं में बहुसंख्यक तबका-- पिछड़े और दलीत को साधने की राजनीति हेतु जातिय जनगणना को मुद्दा बनाया गया  लेकिन मोदी सरकार ने आने वाले जनगणना में जातिगत जनगणना कराने की बात कहकर उन्हें मुद्दा विहीन कर दिया। 

लेकिन यूपी और बिहार में एमवाई अर्थात मुस्लिम और यादव की राजनीति करने वाले सपा के अखिलेश यादव और लालू लाल- तेजस्वी यादव को यूपी के इटावा में घटित यादव जाति के कथावाचकों की जातिय धूर्तता और अभद्र व्यवहार पर ब्राह्मणों द्वारा की गई प्रतिक्रिया, एक अवसर के रूप में दिखने लगा है। ये जातिवादी नेताओं को ये नहीं दिख रहा कि कथावाचन जैसे पवित्र पथपर आसीन व्यक्ति ने महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार क्यों किया! यदि इनकी मंशा ठीक होती तो नकली आधार कार्ड बनाकर अपनी जाति ब्राह्मण क्यों दर्शाया!! अर्थात ये कथावाचक नहीं धूर्त हैं।


जब यह माना जाता है कि सनातन में कथावाचन करने हेतु जातिय बंधन नहीं है तो जाति छुपाने की क्या आवश्यकता थी!!

ब्राम्हणों द्वारा बनाये गये सन्मार्ग पर चलकर अन्य जातियों के भी साध्वी,संत की श्रेणी में आ गये हैं जिनका विरोध ब्राह्मणों ने किया हो, ऐसा तो नहीं सुना जैसे ---

राम रहीम(जाट), रामपाल(जाट), आसाराम(धोबी, सिन्धी), स्वामी नित्यानंद(दलील), स्वामी चिन्मयानंद (दलील),राधे मां(खत्री,सिंधी), साध्वी ऋतम्भरा(लोधी), साध्वी उमा भारती (लोधी), ब्रह्मकुमारी लेखराज बचानी(सिंधी बनिया),संत गणेश्वर (दलील,पाशी), साध्वी प्रभा(यादव), साक्षी महाराज (कुर्मी, पटेल), साध्वी प्रज्ञा (मल्लाह, दलील), साध्वी चिदर्पिता (मोर्य), स्वामी रामदेव (यादव), आदि, आदि।

लेकिन यूपी में हीं इस तरह का वाकया क्या यह सिद्ध नहीं करता कि इसके पीछे हिंदुओं में जातिगत जहर बोने का सुनियोजित षड्यंत्र है!! वैसे भी बिहार में चुनाव सर पर है तो एमवाई समीकरण साधना राजद की मजबूरी है और यूपी में जातिवादी राजनीति के लिए "बांटोगे तो कटोगे" की काट खोजना सपा की मजबुरी है।

खैर आइये *जातिवाद* का समाजशास्त्रीय सच आपके समक्ष रखता हूॅं -------------

हिंदूओं में जातिवाद से सामान्यत: तात्पर्य  "जाति व्यवस्था" में कालांतर एवं परिस्थिति वश उपजे- नियमों, कायदे, कानुनों के नाकारात्मक पक्षों को विशेष अर्थों में संक्षिप्तिकरण से है जिसका उपयोग निहित स्वार्थ के मद्देनजर किया जाता है |यहाँ स्पष्ट कर दूं कि सिक्के के दो पहलू की तरह  हर व्यवस्था के साकारात्मक एवं नाकारात्मक पक्ष होते हैं लेकिन जातिवाद में जातिव्यवस्था के साकारात्मक पक्ष से कोई लेना देना नहीं होता |

वैदिक काल से हीं हिंदू समाज, खुली व्यवस्था के तहत्, चार वर्णों में विभाजित था क्रमशः- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र |जिससे समाज अपनी चार मूलभूत आवश्यकताओं क्रमशः- ज्ञान, रक्षा, आजीविका एवं श्रम की आपूर्ति करता था |सामाजिक प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न, विसंगतियों के चलते ताकि मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति में बाधा न हो इसे जन्मना बनाया गया |फिर यही वर्ण समूहों ने भोगोलिक विस्तार, विभिन्न व्यवसायिक क्षेत्र विस्तार, रक्तशुध्दि की अवधारणा, प्रजातिय भेद आदि को समाहित करते हुए विभिन्न जातियों का स्वरूप लेता गया |

लेकिन इन विभिन्न जातियों के बीच मानवीय एवं सामाजिक सहयोगात्मक संबंध परस्पर निर्भरता एवं सामाजिक समरसता को परिलक्षित करता था |पुनः उत्तर वैदिक काल एवं मध्य काल के आरम्भ से ही विदेशी आक्रमणकारियों का आना शुरू हो गया |चूकि समाज की सुरक्षा का भार एक छोटे समूह,सिर्फ क्षत्रियों पर हीं अवलंबित होने के कारण और अन्य वर्ण की उदासीनता के चलते , आक्रमणकारियों को हिंदूस्तान में सत्ता स्थापित करने में आसानी हुई और बहुसंख्यक हिन्दूओं पर शासन करने का अवसर मिला जिसे स्थायित्व देने हेतु विदेशी आक्रमणकारियों ने बहुसंख्यक हिंदूओं में परस्पर फूट और घृणा के संचार हेतु जातिगत घृणा, व्यवसायिक भेदभाव, छूआछूत, सामाजिक दूराव आदि जैसे हिन्दू संगठनात्मक पहलूओं को कमजोर करने के अनेकों साजिश का सहारा लिया और कामयाब भी हुए जिसमें प्रमुख था - असली मनुस्मृति में परस्पर विभिन्न वर्णों के बीच भेद और घृणा उत्पन्न करने वाले श्लोकों की रचना कर ठूसना| असली मनुस्मृति में मात्र 630 श्लोक हीं थे जिसमें मुगलों और बाद में अंग्रेजों ने कृत्रिम घृणात्मक श्लोक भरे जबकि मनुस्मृति में चारों वर्णों को समान महत्व दिया गया था ||आज मनुस्मृति में हजारों श्लोक मिलेंगे| ये कहाँ से आये ❓ये जबरदस्त शाजिस थी जिसका लाभ मुगलों और अंग्रेजों की तरह,आज के जातिवादी राजनितिज्ञ भी उठा रहे हैं |

 आरम्भ में शक आये, हुण आये लेकिन भारतीय संस्कृति ने उनका अलग अस्तित्व नहीं रहने दिया, उन्हें अपने में आत्मसात कर लिया लेकिन अरबों , मुगलों और फिर अंग्रेजों को आत्मसात नहीं कर पाये |इन लोगों ने हीं  भारत में स्थायी शासन एवं सत्ता के क्रम में हिंदूओं के जातिव्यवस्था में परस्पर घृणा, छूआछूत जैसे अमानवीय व्यवहार को षणयंत्र के तहत्, सत्ता से चिपके हिंदूओं को माध्यम बना उल्लू सीधा किये |

जिस तरह अरबों,मुगलों और अंग्रेजों ने "जातिवाद"को हिंदूओं के सामाजिक संगठन को क्षतविक्षत करने हेतु,अपने स्वार्थ में उपयोग किया वही काम आजादी के 78 साल बाद भी राजनीतिक दलों एवं राजनीतिक नेताओं द्वारा किया जा रहा है😡😡 |आजादी के बाद इतने बरसों में जातिव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आ चूका है लेकिन जनता को मूर्ख बनाने का सिलसिला आज भी कायम है | आजाद भारत में,जातिव्यवस्था का सहारा लेकर सत्ता सुख भोगने और वोट की राजनीति करने में जातिवाद एक सबसे शसक्त जरिया बन चुका है |

 आइये देखते हैं जातिवाद कहाँ है !!! --

स्कूलों में है❓--नहीं

ट्यूशन में है❓-- नहीं

राशन की दूकान में है- नहीं

बैंक में है❓-- नहीं

होटलों में है❓-- नहीं

थियेटरों में है❓--नहीं

पान की दूकान पर है❓-- नहीं

बस, ट्रेन, हवाईजहाज में है❓-- नहीं

सब्जी मंडी में है❓-- नहीं

विभिन्न राजनीति दलों में है❓-- नहीं

शमशान में है❓-- नहीं

बाजार में है❓-- नहीं

किसी व्यवसाय में है❓-- नहीं

विभिन्न उत्सवों के आयोजन के अवसर पर पार्टी होती है उसमें ❓-- नहीं

चाय की दुकान पर है❓-- नहीं

शहरों, देहातों में छूआछूत आदि दिखता है❓-- नहीं

जब उपरोक्त कहीं जातिवाद दिखता नहीं है तो फिर !!!!!! 

ये कहाँ दिखता है❓--

जी, ये दिखता है ➡️

ये दिखता है संबिधान में, 

ये दिखता है सरकारी नौकरियों में, 

ये दिखता है सरकारी लाभकारी योजनाओं में, 

ये दिखता है शिक्षा के क्षेत्र में, 

ये दिखता है सबर्णों को प्रताड़ित करने में (st/sc act), 

ये दिखता है राजनीतिक दलों एवं नेताओं के मुख में, 

ये दिखता है मिडिया के विभिन्न चैनलों में-- एक दलित या आरक्षित वर्ग की महिला या युवती के साथ बलात्कार हो जाय तो सारे मिडिया वाले और नेताओं का तांता लग जाता है और वहीं सैकड़ों सबर्ण महिला या युवती के साथ हो तो नेता और मिडिया गुंगे हो जाते हैं |

अब जातिवाद के नाम पर इस देश में कितना अमानवीय व्यवहार स्वीकृत है इसको ऐसे समझें--

हरिजन अपने को हरिजन कहे तो सरकारी नौकरी से लेकर सैकड़ों सरकारी सुविधाएं और यदि आप हरिजन को हरिजन कहें तो आपको संभवतः 10 साल के पहले हाईकोर्ट से बेल भी न मिले |

मैं तो राहत की सांस ले रहा हूॅं इस बात को लेकर कि जब इंदिरा गांधी ने 1984 में सोवियत इंटरकाॅसमाॅस कार्यक्रम के तहत सोयुज टी-11 पर यात्रा करने वाले प्रथम भारतीय राकेश शर्मा को चुना,जो एक ब्राह्मण थे तब इस अवसर पर आरक्षण की बात नहीं की गई !! आश्चर्य है, मोदी ने जब एक ब्राह्मण, हिमांशु शुक्ला को अंतरीक्ष सेंटर पर जाने वाले प्रथम भारतीय के रूप में चुना तो ये जातिवादी नेता चुप क्यों थे!! यहां आरक्षण की बात क्यों नहीं किये!!

*आज के भारत का ये है सच्चा जातिवाद*

परिणाम- देश में भ्रष्टाचार से लेकर हर प्रकार की प्रगति में बाधा हीं बाधा|

तो *ये है इस तथाकथित आधुनिक भारत में जातिवाद का सच्चा स्वरूप* जिससे न राष्ट्र का भला संभव है और न जनता का | हाँ अगर इससे किसी के अस्तित्व पर घोर संकट दिख रहा है तो वो है-- *हिंदू और हिंदूस्तान*

----- प्रोफेसर राजेन्द्र पाठक (समाजशास्त्री), बक्सर, बिहार

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