अनियोजित कंक्रीट निर्माण और जनसंख्या काभारी दबाव व बसाहट, नर्मदा उद्गम क्षेत्र हो रहा प्रभावित
*संरक्षण की सोच, प्रशासन की अनदेखी, बदलता भूगोल, डगमगाता संतुलन*
अनूपपुर
मां नर्मदा, सोन और जोहिला नदियों के पावन उद्गम स्थल अमरकंटक में अनियोजित विकास कार्य और कंक्रीट निर्माण ने पर्यावरणीय संकट को गहरा कर दिया है। कभी जंगलों की हरियाली और शीतल जलधाराओं से आबाद यह तीर्थनगरी आज कंक्रीट के जंगल और अव्यवस्थित बसाहट की मार झेल रही है। नतीजतन बढ़ता तापमान, गिरता जलस्तर और घटती हरियाली स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर रहे हैं।
*संरक्षण की सोच, प्रशासन की अनदेखी*
वर्ष 1988 में तत्कालीन अध्यक्ष भोलानाथ राव विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण (साडा) की अध्यक्षता की बैठक में तत्कालीन अधिकारियों ने अमरकंटक में सीमेंट निर्माण और अंधाधुंध बसाहट पर रोक लगाने का निर्णय लिया था। उस समय मध्यप्रदेश शासन के मुख्य सचिव के.सी.एस. आचार्य ने साफ निर्देश दिए थे कि यहां न तो ठोस सीमेंट निर्माण हो और न ही बोरिंग की अनुमति दी जाए।
परंतु समय के साथ प्रशासनिक उदासीनता और निजी स्वार्थों के कारण धीरे-धीरे नियम दरकिनार होते गए। फलस्वरूप अमरकंटक का तापमान बढ़ने लगा और जलस्तर लगातार नीचे खिसकता गया। “विकास आवश्यक है, लेकिन ऐसा विकास जो प्रकृति के साथ कदम मिलाकर चले, न कि उसे कुचलकर।
*बदलता भूगोल, डगमगाता संतुलन*
1970–80 के दशक में नर्मदा तट दलदली भूमि से घिरा रहता था। परंतु सीमेंट कंक्रीट मार्ग और वृक्षों की अंधाधुंध कटाई ने भूमि की नमी और जलधारण क्षमता छीन ली। अमरकंटक भूकंपीय जोन में आता है, ऐसे में अनियोजित निर्माण कार्य भविष्य में भूकंप जैसे खतरों को और बढ़ा सकते हैं। नर्मदा, कपिला, वैतरणी और आरंडी जैसी सहायक नदियाँ जल स्रोतों को बढाएं रखने में सहायक है
*नेतृत्व की दूरदर्शिता और आज की हकीकत*
तत्कालीन केंद्रीय मंत्री व सांसद दलवीर सिंह ने अमरकंटक की भूमि पर कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने बॉक्साइट खदानों का विरोध किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक चिंता पहुंचाई। इसी राह पर सांसद राजेश नंदिनी सिंह ने भी अमरकंटक की प्राकृतिक धरोहर की रक्षा के लिए संघर्ष किया।
लेकिन आज की स्थिति यह है कि छत्तीसगढ़ शासन ने हाल ही में अमरकंटक में 5 एकड़ भूमि सामुदायिक भवन और धर्मशाला निर्माण हेतु मांगी है। जिस स्थल पर नजर है, वहां सैकड़ों साल पुराने वृक्ष खड़े हैं। यदि उन्हें काटा गया तो अमरकंटक के पर्यावरण पर गहरा असर पड़ेगा। “अमरकंटक केवल भूमि नहीं, यह नदियों का उद्गम और करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है।
*जल–जंगल–जमीन पर संकट*
आज स्थिति यह है कि जंगल सिमटते जा रहे हैं, जलस्तर गिर रहा है और भूमि का संतुलन डगमगा रहा है। अगर समय रहते अनियोजित निर्माण और वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगाया गया तो आने वाले वर्षों में अमरकंटक एक बड़े पर्यावरणीय संकट का सामना करेगा।
निष्कर्ष यही है कि अमरकंटक में विकास और कंक्रीट का जंगल साथ-साथ संभव नहीं। यदि विकास चाहिए तो वह प्रकृति के साथ समरस होना चाहिए, अन्यथा यह पवित्र नगरी आने वाली पीढ़ियों के लिए केवल एक चेतावनी की कहानी बनकर रह जाएगी।