न कविता लिखती हूँ, न ही छंद लिखती हूँ, कलम जब भी चली तो मुक्तक चंद लिखती हूँ
न कविता लिखती हूँ,
न ही छंद लिखती हूँ।
कलम जब भी चली तो
मुक्तक चंद लिखती हूँ।।
फूल सुंदर हों भले ही,
लोग उसमें रम गए हों।
प्यास की आकांक्षा से
विघ्न के पट जम गए हों।
किन्तु अंतस में छिपा मैं
आज भी तो द्वंद लिखती हूँ।
कलम जब भी चली तो
मुक्तक चंद लिखती हूँ।।
स्वप्न सारे सो गए, क्यों
राह अनजानी हुई।
अरमान आंसू पी रहे
विषयुक्त यह वानी हुई।
अपमान के इस दौर में
मैं यहां मकरंद लिखती हूँ।
कलम जब भी चली तो
मुक्तक चंद लिखती हूँ।।
अर्पणा दुबे ।।