विषय.. "मजदूर हूँ मजबूर नहीं"
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मजदूर दिवस पर एक रचना
शीर्षक... "मंजिल"
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वाकई बहुत दुखद क्षण है
मजदूरों के लिए,,,
जिनके लिए दिन रात मेहनत की..
आलीशान महल बनाए,,
मालिकों ने दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़..
फैक्ट्रियों के मालिक ने करोड़ों कमायें
उन्होंने ही इनको भटकने के लिए मजबूर कर दिया
यह वह लोग हैं,,,
जिन्होंने अपने लिए कभी जिया नहीं
पर अपने भोग विलास में लिप्त
कुछ लोगों ने इन्हें,,,
दरबदर ठोकर खाने पर,,
मीलों पैदल चलने पर मजबूर
कर दिया,,,
हाँ मजदूर है पर मजबूर नही
इनका कसूर क्या था,,
जो सबसे ज्यादा परेशान
कंधे पर ईट ढोने वाले,
आज गृहस्थी का सामान
और बच्चे कांधे पर बैठाकर
मीलों का रास्ता नाप,,
घर को जा रहे हैं,,
मंजिल का पता नहीं
कुछ तो घर पहुंच ही नहीं पाए
रास्ते में ही सफर खत्म हो गया
वाकई बहुत दुखद क्षण है इन मजदूरों के लिए
ये ना होते तो क्या ????
ये बन पाते मकान ओर महल
ये फसलें लहलहा पाती
ये सड़कें बन पाती
ये फैक्ट्रीयाँ या मिले चल पाती
यह सब तो छोड़ो यारों ,,,,,
घरों के काम भी नहीं होते इनके बिना ।।
मजदूर हूं मजबूर नहीं
(वंदना खरे कवियत्री, समाज सेविका चचाई अनूपपुर )