दशहरे पर लघु कथा, दशहरे पर किलकारी- कहानीकार अनिल भारद्वाज
प्रतिष्ठित विप्र कुल के ठाकुर दास (उस्ताद जी) और कंचन के विवाह को एक दशक का समय बीत गया लेकिन अभी उनके घर के आंगन को संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि ठाकुर दास को तंत्र मंत्र और प्रेत सिद्धि की साधना के दौरान प्रेत की दो शर्तें स्वीकार करनी पड़ीं। पहली परहित में ही सिद्धियों का प्रयोग करना होगा , दूसरी बारह वर्ष तक संतान सुख से वंचित रहना होगा। दुखी कंचन के नित्य दुखद आग्रह को पति ने प्रेतराज के समक्ष रखा तो प्रेत ने भाव विभोर होकर उपाय बताया कि यदि कंचन बहरारे वाली दुर्गे माता का नित्य एक वर्ष तक दर्शन कर उपासना करें तो उसे 12 वर्षो पूर्व ही संतान की प्राप्ति हो जावेगी।
गांव से दस बारह किलोमीटर दूर घनघोर जंगल में बहरारे की माता के मंदिर था। उस मंदिर की महिमा अनोखी थी। नवरात्रि में अष्टमी तिथि तक माता का शिला रूप बढ़ कर देहरी तक आ जाता और मंदिर की छोटी सी किवड़िया भी बंद नहीं हो पाती और माता पर जो जल चढ़ता था वह भी एक छोटे से डेढ़ फुट गहरे आधा फीट चौड़े कुंड में समा जाता और वह कुंड न तो कभी खाली होता और न ही ऊपर तक भर पाता। यह माता का ही प्राकृतिक चमत्कार था। संतान प्राप्ति के लिए सुहागिनें स्वास्तिक चिन्ह बनाकर माता से अर्जी लगातीं और उनकी सूनी गोद भर जाती।
कंचन बहरारे की माता के मंदिर पर रोज जाने लगी और माता की महिमा से कंचन ने 12 वे वर्ष में दशहरे के दिन एक बालक काशी प्रसाद को जन्म दिया और प्रेत ठाकुर दास की सेवा के लिए अपनी दो योगिनियां छोड़ कर विदा हो गया। तभी से ठाकुर दास और कंचन का कुल पीढ़ी दर पीढ़ी बहरारे वाली दुर्गे माता को कुलदेवी के रूप में पूजता चला आ रहा है।
*कहानीकार अनिल भारद्वाज एडवोकेट हाईकोर्ट ग्वालियर मध्यप्रदेश*