अमरकंटक में उद्घाटित हुआ विश्व हिंदू परिषद का तीन दिवसीय अखिल भारतीय युवा संत चिंतन वर्ग
*संत परंपरा के संगम में गूंजी राष्ट्रधर्म की वाणी*
अनूपपुर
पवित्र नर्मदा तट की वंदनीय भूमि अमरकंटक में आज भारतीय अध्यात्म, संस्कृति और राष्ट्रधर्म के स्वर एक साथ गूंज उठे। विश्व हिंदू परिषद के तत्वावधान में अखिल भारतीय युवा संत चिंतन वर्ग का शुभारंभ मृत्युंजय आश्रम में मंगलमय वातावरण में हुआ। दीप प्रज्वलन और श्रीराम दरबार व भारत माता की आरती के साथ आरंभ हुए इस तीन दिवसीय आयोजन में देशभर से पधारे संत, आचार्य और साधु-संतों ने सहभागिता की। इस अवसर पर संत नर्मदानंद बापू महाराज, विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय अध्यक्ष आलोक कुमार, तथा संरक्षक दिनेश चंद्र मंचासीन रहे। कार्यक्रम का संचालन परिषद के केंद्रीय मंत्री एवं धर्माचार्य संपर्क प्रमुख अशोक तिवारी द्वारा किया गया।
उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए आलोक कुमार ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष और विश्व हिंदू परिषद की षष्टिपूर्ति (60 वर्ष) की इस यात्रा में यह सबसे बड़ा परिवर्तन आया है कि आज भारत का हर कोना यह कहने लगा है, हमें गर्व है कि हम हिंदू हैं।
उन्होंने कहा कि एक समय था जब अपने को हिंदू कहने में संकोच होता था, परंतु आज स्थिति बदल चुकी है। जब राम मंदिर आंदोलन हुआ, तब कारसेवकों ने अपने रक्त से ‘राम’ लिखा था। आज वही भक्ति और समर्पण हिंदुत्व की धड़कन बन गई है। मंदिर निर्माण के लिए 40 दिनों में 65 करोड़ लोगों ने जो योगदान दिया, वह हिंदू एकता की अभूतपूर्व मिसाल है।
विश्व हिंदू परिषद ने देशभर के 850 गाँवों को चिन्हित किया है, जहाँ धर्मांतरण की जड़ें फैल रही हैं। वहां सेवा, संस्कार और समर्पण से कार्य कर ‘घर वापसी’ का अभियान चलाया जाएगा। पूज्य नर्मदानंद बापू महाराज ने संत समाज का आह्वान करते हुए कहा की यह युवा संत चिंतन वर्ग, सनातन परंपरा के एकत्व का प्रतीक है। देश में बढ़ते ईसाईकरण और इस्लामीकरण के बीच यह आवश्यक है कि हम अपने धर्मांतरण से भटके हुए भाइयों को स्नेहपूर्वक वापस लाएं। समाज का पुनर्जागरण संतों के सामूहिक प्रयास से ही संभव है।
विश्व हिंदू परिषद के संरक्षक दिनेश चंद्र ने परिषद की स्थापना और उसके उद्देश्य पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा कि देश स्वतंत्र हुआ, परंतु हिंदू समाज के मंदिर, साधु-संत, गौमाता और हमारी बहन-बेटियाँ सुरक्षित नहीं थीं। समाज में संगठन और संस्कार की आवश्यकता थी, इसी से 1964 में मुंबई के चिन्मयानंद आश्रम में विश्व हिंदू परिषद की स्थापना हुई।
