मानो तो मैं नर्मदा मां हूँ, ना मानो तो बहता पानी, जैव विविधता, पर्यावरण संस्कृति संरक्षण ,जनकल्याण ही सच्ची पूजा
*अमरकंटक नर्मदा महोत्सव 2025 पर विशेष*
*( मनोज कुमार द्विवेदी, अनूपपुर की कलम से)*
अनूपपुर
मैं नर्मदा बोल रही हूँ । तुम सब मेरी आवाज नहीं सुन सकते, सुनने - समझने की कोई कोशिश तक नहीं करते तो कोई बात नहीं । तुम सब मुझे माई कहते हो, मानों तो मैं नर्मदा मां हूँ और नहीं मानते तो केवल साधारण बहती नदी । करोड़ों वर्ष पहले जब मैं सतपुड़ा और विंध्याचल पर्वत श्रृंखला के मध्य अवस्थित अमरकंटक के आम्रकुंज से प्रकट हुई तो मेरे आसपास इतनी चहल - पहल नहीं थी। प्रकृति इतनी नर्म और सुखदायक थी कि उसका सर्वथा प्रभाव मुझ पर भी पड़ गया। भगवान शिव की पुत्री होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होने से उन जैसी पवित्रता का अंश मुझे प्राप्त हुआ। मेरे आसपास तब पर्वत श्रृंखलाओं, कन्दराओं में प्राकृतिक सुन्दरता, निर्मलता ऐसी थी कि जिसने देश के तमाम ऋषि, मुनियों, संतों, तपस्वियों को आकृष्ट किया। अगस्त्य, भृगु, भारद्वाज, अत्रि, कौशिक, कपिलमुनि, मार्कण्डेय, शाण्डिल्य,कबीर ,शंकराचार्य, सीताराम जैसे ऋषि मुनियों ने मेरे तट पर तपस्या की। उस समय ना तो आज की तरह आश्रम, न्यास या होटल्स होते थे और ना ही विशाल अट्टालिकाएं। लोग सरल, सहज , संस्कारित, मर्यादित इतने कि अशुद्धता और गंदगी का एक अंश मात्र तक मुझ तक नहीं पहुंचता था। श्रद्धालुगण बहुत आस्था के साथ मेरे जल से आचमन करते थे और उसका पान भी करते थे। शांति इतनी थी जो पक्षियों, वन्यजीवों, गायों कि आवाज या मंत्रोच्चारण ,भजन- कीर्तन से ही गुंजाय होती थी। तब लाउडस्पीकर, डीजे कहां होते थे। प्राकृतिक शुद्धता के कारण मौसम भी अत्यंत शीतल,मनोरम,मनभावन होता था। वर्षा ऋतु में बादल कुटिया की धरा तक चहलकदमी करते थे। महीनों सूर्य की किरणें हम तक नहीं पहुंचती थीं । तब वर्षा, शीत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु कब आई और कब चली गयी, पता ही नहीं चलता था। झमाझम होती वर्षा वनस्पतियों, जीव - जन्तुओं मे नव जीवन का संचार करती थीं। पर्वतमालाओं की कन्दराओं से पश्चिम की ओर बहती हुई 1312 किमी दूर खंभात की खाड़ी में मैं सागर राज से मिलती हूँ । मेरे दोनों तटों पर आज श्रद्धालुओं ने छोटे - बड़े लगभग दस हजार से अधिक तीर्थ स्थल बना लिये हैं । जहां कुछ वर्ष पहले तक श्रद्धालुओं, भक्तों और परिक्रमा वासियों की आवाजाही होती थी। बहुत कष्ट सह कर दुर्गम पथ पर चल कर भक्तगण मेरी परिक्रमा करते थे। आज भी लाखों परिक्रमा वासी पापनाश और पुण्य की लालसा लिये परिक्रमा करते हैं। तब लोग बग्घी, घोड़े, खच्वर या पालकी से परिक्रमा नहीं करते थे । आज तो लोग वाहनों से परिक्रमा कर लेते हैं। आज मेरे आसपास पर्यटकों की भारी भीड़ है। सरकारी - गैर सरकारी बहुत से पक्के निर्माण से विकास का रास्ता खोजा जा रहा है। बढती आवश्यकता के अनुरूप यह जरुरी भी है। यह बहुत जरुरी है कि यात्रियों को यात्रा के लिये सुगम मार्ग मिले, प्यासों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो, परिक्रमा वासियों को छायादार स्थान सुलभ हो। लेकिन इन सबसे मुझे कोई कष्ट ना हो, यह देखने वाला कोई नहीं है। अमरकंटक से लेकर खंभात तक मेरे दोनों तटों पर हजारों छोटे - बड़े गाँव, कस्बे, नगर, महानगर हैं । हजारों वर्ष से कोटि - कोटि जीव जन्तुओं ,वनस्पतियों का भरण पोषण करने के कारण लोग मुझे जीवन दायिनी भी कहते हैं। मुझे मध्यप्रदेश की जीवन रेखा माना जाता है। मेरी पूजा की जाती है।महा आरती, भण्डारा ,कन्या स्वरूप की पूजा की जाती है। दुख इस बात का है कि लोग और तमाम सरकारें मेरी शुद्धता और मेरे अस्तित्व के लिये जरा भी चिंतित नहीं हैं । माई कहते है और अपने घर की पूरी गन्दगी मुझमें प्रवाहित कर देते हैं। मेरी जन्मदात्री साल वृक्षों का दो दशक पहले कीटों की आड में कत्ले आम किया गया। तब एक राजा ने इसे सालबोरर का नाम दिया और लाखों साल वृक्ष कटवा दिये। अब ऐसे मार्ग चौडीकरण के लिये हजारों - लाखों पेड़ काट डाले गये। मुझे इन सबसे बड़ा कष्ट है।
मेरे उद्गम स्थल अमरकंटक में कुछ वर्षों से नर्मदा महोत्सव के नाम पर आयोजन करने की परंपरा शुरु की गयी है। यह बहुत अच्छा है । अमरकंटक नर्मदा महोत्सव 2025 के आयोजन पर मेरी भी नजर है। अमरकंटक में मेरे दक्षिण तट पर देव उठनी एकादशी के पर्व पर यहाँ पहली बार वृहद स्तर पर आयोजित किये गये दीपदान कार्यक्रम में कलेक्टर हर्षल पंचोली सपरिवार शामिल हुए थे । लोग देख रहे हैं कि अमरकंटक महोत्सव में उन्होंने किस तरह से संस्कृति, आध्यात्म और जैव विविधता के संरक्षण के लिये योजना को आगे बढाया है। मुझे अच्छा लगा कि उन्होंने नर्मदा पूजन ,कन्या पूजन के साथ योग, ध्यान, प्रकृति दर्शन के साथ स्थानीय लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में स्थानीय उत्पादों को बढावा देने का कार्य किया है। स्थानीय लोग सरल सहज है,सबको उनका ध्यान रखना होगा।
मेरी पूजा अर्चना , दर्शन के समय तुमने मुझे पुष्प, फल, मिष्ठान्न, चुनरी, नारियल अर्पित किया या नहीं , यह जरुरी नहीं है। । मेरे लिये यह भी महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम झोपड़ी में रहते हो , महलों मे, आश्रम मे या किसी न्यास में । तुम मुझ तक लाखों - करोड़ो की गाड़ियों से आते हो या उडन खटोले से उड़ कर । लंगोट धारी हो या सूटबूट धारी वीवीआईपी का तमगा ओढे फलाने - ढिमाके। मुझे लोग पतित पावनी माई कहते हैं । मैं मां हूँ इसलिए विश्व कल्याण ही मुझे भाता है। मुझे खुश करना चाहते हो,पापों का क्षय और पुण्य अर्जित करना चाहते हो तो जीव कल्याण की निष्काम भावना से कार्य करना होगा।वनस्पतियों, पर्यावरण, जीव - जन्तुओं के संरक्षण से ही जगत का कल्याण होगा।
सबसे अन्त में ! लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप सभी नर्मदा महोत्सव पर्व में शामिल होने अमरकंटक आ रहे हैं। मैं अमरकंटक मे आपसे जरुर मिलूंगी। किसी भी स्वरुप में दर्शन दूंगी, बस तुम मुझे पहचान जरुर लेना।