सरसों के फूलों पर ,मुस्कान सजाती जाना, अमराई के माथे पर, बौर सजाती जाना, तब बसंत महकेगा
*बसंत ऋतु पर गीत*
*तब बसंत महकेगा*
तुम सरसों के फूलों पर ,मुस्कान सजाती जाना ,
तुम अमराई के माथे पर ,बौर सजाती जाना ,
तब पतझर की सूखी डाली,पै बसंत महकेगा ,
तब कोयल के रस भीने,स्वर से बसंत चहकेगा"।
मैं पलाश के पत्तों पर ,श्रंगार-गीत रच दूंगा ।
तुम अनब्याही अभिलाषा की,मांग सजाती जाना ,
तुम पंखुड़ियों से क्यारी की ,सेज सजाती जाना ,
तब तन पर यौवन की केसर,से बसंत बहकेगा,
तब कलियों के खुलते घूंघट, से बसंत झांकेगा।
मैं कोंपल की कोरों पर ,श्रंगार- गीत रच दूंगा।
तुम पुरवा के पांवों में , झंकार सजाती जाना,
तुम भंवरों के गुंजन में,झपताल सजाती जाना,
तब बंजारिन के इकतारे,से बसंत झनकेगा ,
तब पायलिया की रुन-झुन धुन से बसंत खनकेगा,
मैं मृदंग की थापों पर , श्रंगार-गीत रच दूंगा।
गीतकार-अनिल भारद्वाज,एडवोकट, हाईकोर्ट ग्वालियर,